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रसीले संतरे और मुरझाये चेहरे वाले किसानों की कहानी

ब्रजेश राजपूत

भोपाल | 6  अप्रैल 2017

संतरों की राजधानी कानड

Orange Orchard in Kanad, Madhya Pradesh Photo: ANN/Brajesh Rajput

कानड़ मध्य प्रदेश में संतरों से लदे पेड़ खरीदारों के इंतज़ार में (फोटो : एग्रीनेशन नेटवर्क/ ब्रजेश राजपूत)

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से तकरीबन डेढ सौ किलोमीटर चलने के बाद षुजालपुर आते ही सडक के दोनों तरफ संतरे के फलो से लदे बगीचे दिखने लगते हैं। आगर मालवा के पहले कानड आएं तो संतरे की अस्थायी मंडियां पडतीं हैं जहां संतरों को किसानों से खरीद कर पैक कर बाहर भेजा जाता है। आगर मालवा के थोडे पहले ही है कानड कस्बा। जहां पर आसपास हर तरफ संतरे के बगीचे ही बगीचे हैं। दुकानों के नाम भी संतरा और आरेंज पर रखे गये हैं। इस कस्बे की पूरी इकोनॉमी संतरा आधारित ही है।

राजधानी के पास किसानों का ये हाल

कानड कस्बे के बाजार में एक दुकान हैं आरेंज टैक्टर्स। ये दुकान दुर्गाप्रसाद पालीवाल की है। इनके पिता मेघराज पालीवाल करीब तीस साल पहले इस इलाके में संतरे की कलम लेकर आये थे। इसी कलम की बदौलत पिछले कुछ सालों में ये इलाका संतरे की चमक और खुशबू से महक रहा है। यहां के संतरे पाकिस्तान नेपाल और बांग्लादेश एक्सपोर्ट होते रहे हैं। मगर इस बार माहौल बदला है। मंडियों में बंपर माल है मगर खरीदार नहीं है। पूछो ऐसा क्यों तो जबाव आता है नोटबंदी।

संतरे की बंपर फसल, खरीदार गायब

कानड के पास ही है इकलेरा गांव जहां पक्की सडक से उतर कर थोडा अंदर बढ़ते ही मिलते हैं महेश जैन जिनके 75 बीघे में संतरा लगा है। बाग के अंदर घुसते ही थोडी थोडी दूर पर संतरे के पेड़ दिखते हैं जिनमें हरी पत्तियों के बीच से नारंगी रंग वाले संतरे झांकते हैं। रसीले संतरों को पास जाकर छूने का मन करता है क्योंकि पूरे बाग में संतरे की महक फैल रही है। मगर संतरे की अच्छी फसल के बाद जैसी चमक मालिक महेश जैन के चेहरे पर होनी चाहिये वैसी नहीं है। पूछने पर बताते हैं इस बार संतरा बिक नहीं रहा। व्यापारी माल खरीदने ही नहीं आ रहे। दिन गुजरते जा रहे हैं यदि खरीदार नही आये तो ये फल कुछ दिनों में ही पूरी तरह पक कर जमीन पर गिर जायेंगे। फिर ये किसी काम के नहीं रह जायेगे सिवाय खाद बनाने के।

बांस का खर्च भी नहीं निकला

महेश कहते हैं उन्हें लाखों रुपए के फल गोबर की खाद में बदलने के सपने आने लगे हैं। पिछली बार उन्होने अपना ऐसा ही बाग तीस से पैतीस लाख में बेचा था। इस बार दोगुने पैसे मिलने की उम्मीद थी मगर अब तो वो निराश होकर कहते हैं इस बार बांस के पैसे भी नहीं निकल पा रहे। मैं चौंका संतरे की फसल में ये बांस कहां से आ गया। लंबे वक्त से बाग का रखरखाव करने वाले पवन मंगल ने समझाया कि संतरे के एक पेड़ में तकरीबन चार क्विंटल तक फल आता है, ऐसे में वजन से पौधा सीधा बना रहे उसके लिये हर पौधे के चारों तरफ बांस का फ्रेम बनाया जाता है। जिसमें करीब हजार रूपए का खर्च आता है मगर इस बार एक पौधे से हजार रूपए के संतरे भी नहीं बिक रहे। संतरे के इस धंधे में पिछले दो साल से मार पड रही है। इस बार अच्छी फसल ने अच्छी कमाई की उम्मीद बढा दी थी। मगर व्यापारी पांच रूपए किलो में भी संतरा मुश्किल से खरीद रहा है।

रसीरा संतरा लेकिन मुरझाया किसान

संतरों को लगातार ललचायी नजर से देखने के दौरान ही महेश जैन एक संतरा लाकर देते हैं आप इसे खाइये। मोटे छिलके वाले संतरे को छीलते ही अंदर बडे बडे फांक वाला संतरा था। पूरी फांक मुंह में जाते ही संतरे की थोडी खटास और ढेर सी मिठास वाला रस से मुंह पूरा भर गया। फिर तो मिनट नहीं लगा एक पूरा संतरा खाने में सच मानिये ऐसा रसीला संतरा मैंने पहली बार खाया। नागपुर के संतरों के आगे आगर मालवा के ये संतरे किसी मायने में कम नहीं हैं

संतरा प्रसंस्करण यूनिट जरूरी

इस जिले में 40 हजार हेक्टेयर में करीब 10 लाख टन संतरा होता है। यानी पूरे प्रदेश के कुल संतरा उत्पादन का 70 परसेंट। मगर इसके बाद भी यहां संतरा प्रसंस्करण की कोई यूनिट नहीं है। यानी संतरा व्यापारी खरीदे तो ठीक वरना किसान भगवान भरोसे। संतरा वक्त पर बिका तो ठीक वरना पक कर फल गिरने से पहले औने पौने दाम पर बेचो और खुश रहो। इस इलाके के पत्रकार जफर मुल्तानी कहते हैं अच्छी पैदावार और बहुत बेहतर क्वालिटी के संतरा होने के बाद भी यहां संतरा बिकना कम हो गया है व्यापारी आते नहीं, आते हैं तो अपने रेट पर खरीदते हैं। यदि यहां कोई संतरे के जूस या पल्प निकालने की यूनिट लग जाती तो किसान अपना माल वहां बेचते। जब सरकार से हमने इस मामले में बात की तो राज्य के कृपि मंत्री गौरीशंकर बिसेन ने बडे उत्साहित होकर कहा अरे अब बाबा रामदेव ने बडी कृपा की है हम पर। आने वाले दिनों में वो पीथमपुर में फुड प्रोसेसिंग यूनिट लगा रहे हैं किसानों के दिन फिर जायेंगे। मन में फिर वही पत्रकारों वाला सवाल आया कि अब तक कहां थे मंत्री जी, इतने सालों में क्यों नहीं कोई ऐसी यूनिट खोली जिससे किसानों को व्यापारियों के भरोसे नहीं रहना पडता। अब बाबा के भरोसे है सरकार। उधर बाबा कहते हैं कि मुझे जितनी जमीन दी है इतने में तो बाबा कबडडी खेलता है।

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(पत्रकार एबीपी न्यूज में मध्यप्रदेश के ब्यूरो चीफ हैं)