अरुण पांडेय
(पी साईनाथ के व्याख्यान पर आधारित)
देश इस वक्त खेती-बाड़ी के इतने बड़े संकट से गुजर रहा है कि इस पर चर्चा के लिए संसद का 10 दिन का विशेष सत्र बुलाया जाना चाहिए। कृषि की कवरेज करने वाले जाने माने पत्रकार पी साईनाथ के मुताबिक संसद के इस विशेष सत्र में सीधे किसानों को भी बुलाया जाए और तमाम कृषि दिक्कतों पर चर्चा हो। अभी सरकारी नीतियों और किसान की परेशानियों के बीच कोई तालमेल नहीं है, इसलिए मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं ।
सरकारी अफसरों को सैलरी में भैंस दीजिए
साईनाथ बताते हैं “ मामला कुछ साल पुराना है, महाराष्ट्र के यवतमाल के एक किसान को प्रधानमंत्री पशुपालन योजना के तहत भैंस मिली। लेकिन वो भैंस लेकर मेरे पास आ गया, बोला ये भैंस आप खरीद लो। मैंने कहा मैं तो पत्रकार हूं। तुम इस भैंस को क्यों बेच रहे हो, किसान ने समझाया यह साधारण भैंस नहीं है, प्रधानमंत्री की भैंस है। मैंने कहा भाई भैंस तुम्हारे लिए है, उसने कहा ये बड़ा सिरदर्द है। अगर तुम पत्रकार हो तो मेरी बात प्रधानमंत्री तक पहुंचा दो कि अगली बार सरकारी कर्मचारियों की सैलरी के बजाए उन्हें भी भैंस दी जाए। तब उन्हें किसानों के दर्द का अंदाज होगा।“ यवतमाल के किसान और पी साईनाथ के बीच की यह बातचीत उन दिनों की है जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे।
सरकारी अफसरों को जमीनी हकीकत नहीं पता
पी साईनाथ कहते हैं कि अधिकारियों के मालूम ही नहीं है कि किसान की जरूरत क्या है? यही वजह है कि दिल्ली में योजना बनी कि किसानों की आय बढ़ाने के लिए उन्हें दुधारू पशु दिया जाए तो बहुत से लोगों को बिना सोचे समझे भैंस दे दी गई, जबकि हर किसान पशुपालन में भी पारंगत हो ऐसा जरूरी नहीं है।
हर किसान की जरूरतें और कौशल अलग होता है। लेकिन सरकारी अधिकारी इसे नहीं समझते। किसान को जबरन दुधारू पशु दिए जाने का एक और मामला यवतमाल की एक महिला किसान कमला बाई हुडे का है। उन्हें भी उसी योजना के तहत भैंस मिली थी। लेकिन हफ्तेभर के अंदर कमला बाई उसे बेचने निकल पड़ीं। उनसे पूछा कि वो इस भैंस को क्यों बेच रही हैं, तो कमला बाई ने कहा ये भैंस नहीं भूत है, पूरे परिवार से ज्यादा इसके खाने में खर्च आता है। उन्होंने वो भैंस अपने पड़ोसी को मुफ्त में पकड़ा दी पर पड़ोसी भी हफ्ते भर में वापस कर गया।
तीसरी फसल का इंतजार करते हैं सब
दरअसल योजनाएं बनाने वाले बड़े सरकारी अधिकारी कृषि संकट को पूरी तरह समझ ही नहीं पा रहे हैं। गांव और तहसील स्तर के सरकारी कर्मचारियों के लिए कृषि कमाई का जरिया है। साईनाथ की किताब तीसरी फसल (Everybody Loves Drought) इसकी कलई खोलती है। सूखा प्रभावित इलाकों में तीसरी फसल बहुत प्रचलित है, सरकारी अधिकारियों के लिए इसका मतलब है, सूखा राहत के एवज में किसानों से वसूली जाने वाली घूस या रिश्वत।
आय बढ़ाइए मुसीबत नहीं
किसान की आय बढ़ाने के लिए मदद जरूरी है, लेकिन अगर यह जरूरतों के मुताबिक नहीं होगी तो करोड़ों और अरबों रुपए खर्च करने के बाद भी किसानों को कोई फायदा नहीं मिलेगा।
साईनाथ के मुताबिक देश में भीषण कृषि संकट से चल रहा है। लेकिन सरकारें समस्या से निपटने के बजाए उसे आंकड़ों की जादूगिरी से छिपाने की कोशिश में जुटी हैं।
किसानों की आबादी घटी
किसान कौन है इसकी परिभाषा अभी तक सरकार तय नहीं कर पाई है। साईनाथ के मुताबिक सरकारी आंकड़े कहते हैं देश की 53 परसेंट आबादी खेतीबाड़ी में लगी है। लेकिन हकीकत यह है कि पिछले बीस सालों में किसानों की आबादी कम हुई है। 1991 से 2011 के बीस सालों में 150 लाख किसान कम हो गए। मतलब हर दिन 2000 किसान कम हो रहे हैं, लेकिन खेत मजदूरों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।
जनगणना की परिभाषा में चलें तो देश में 10 परसेंट से भी कम लोग विशुद्ध खेती-किसानी में लगे हैं, और इसमें लगातार कमी आ रही है।
किसान की परिभाषा- कोई भी व्यक्ति जो साल में कम से कम 180 दिन खेती का काम करता है उसका मुख्य पेशा खेती माना जाएगा।
सीमांत किसान – साल में कम से कम तीन से छह महीने तक खेती करने वाला सीमांत और छोटे किसान। मतलब उनका मुख्य पेशा खेती नहीं है और उन्हें जीवन चलाने के लिए दूसरे काम भी करने होते हैं।
अब 180 दिन की परिभाषा में आबादी का सिर्फ 8 परसेंट ही क्वालीफाई कर पाते हैं। मतलब सिर्फ 8 परसेंट लोग ऐसे हैं जो पूरी तरह खेती पर ही निर्भर हैं। अगर इसमें सीमांत और छोटे किसानों को शामिल कर लें तब भी 2011 की आबादी के हिसाब से 24 परसेंट ही किसान होते हैं।
मतलब समझिए कृषि पर निर्भर होना और बात है, किसान होना दूसरी बात। इनमें से बहुत से लोगों के पास खुद की जमीन नहीं है और वो खेतिहर मजदूर हैं। यानी कृषि पर निर्भर तो हैं पर खुद खेती नहीं करते।
बल्कि किसान ही नहीं ग्रामीण इलाकों में बहुत से लोग आर्थिक तौर पर बहुत दबाव में हैं। आत्महत्या सिर्फ किसान हीं नहीं कर रहे हैं, बुनकर का बुरा हाल है वो भी आत्महत्या कर रहे हैं।
किसानों का असली संकट क्या है?
देश में किसान के दो ही मुद्दे हैं, लोन माफी और दूसरा मॉनसून। लेकिन देश में अभी जो चल रहा है वो सूखा नहीं बल्कि पानी का गंभीर संकट है। इसे सूखा नहीं कहा जा सकता। अगर हमें लगातार 10 अच्छे मॉनसून मिल जाएं तो भी हमारा पानी का संकट हल नहीं होगा क्योंकि हम पानी को बचा ही नहीं पा रहे हैं। साईनाथ के मुताबिक सूखा बहुत ही गलतफहमी वाला शब्द है। सूखा मतलब बारिश का फेल होना भर नहीं है। हम पानी का इस्तेमाल कैसे कर रहे हैं ये जानना जरूरी है।
गांवों के पानी पर शहरों का हक
एक रिपोर्ट के मुताबिक गांवों के पानी का हक शहर मार रहे हैं। जैसे महाराष्ट्र के शहरों को गांवों के मुकाबले 400 परसेंट ज्यादा पानी मिल रहा है। पानी गांवों से आता है लेकिन सप्लाई शहरों में होती है। शहरों में चौबीस घंटे पानी मिलता है, जबकि गांवों में पानी की पाइपलाइन तक नहीं है। ये संकट फिलहाल दूर होने की कोई उम्मीद नहीं है।
छोटे किसानों को लोन नहीं, कब्जा किसी और का
बैंक लोन माफी के विरोध में चाहे जितना रोना रोएं पर हकीकत यही है कि छोटे किसानों को लोन मिलने में भारी परेशानी है। यहां तक कि नाबार्ड जैसे बैंक के महाराष्ट्र का बजट का बड़ा हिस्सा मुंबई में खर्च हो रहा है। छोटे और मझौले किसान मुश्किल से 50 लाख से दो लाख रुपए तक ही लोन लेते हैं, लेकिन पिछले 15 सालों में दो लाख से कम लोन लेने वालों की तादाद बहुत कम हुई है।
इसके उलट 1 करोड़ से 10 करोड़ रुपए का वाले लोन लेने वाले काफी बढ़ गए हैं। असल में लोन किसानों के बजाए कृषि उद्योगों को मिल रहा है। यानी फंड का डायवर्जन हो रहा है। खासतौर पर तमाम बैंक साल 2001 से बड़े लोन ज्यादा बांट रहे हैं।
खेती के संकट पर 10 दिन का संसद का सत्र हो
साईनाथ ने मांग की कि देश में कृषि संकट पर चर्चा के लिए संसद का 10 दिनों का विशेष सत्र बुलाया जाए। इसमें सिर्फ किसान, खेती और इससे जुड़े इन मामलों पर चर्चा हो।
- स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों पर चर्चा
- किसानों से सीधे संसद भवन में बुलाया जाए जहां वो खुद अपनी समस्याओं के बारे में बताएं
- कृषि मार्केट पर चर्चा हो, ताकि किसानों को उनकी फसल का वाजिब दाम दिलाने का रास्ता निकल सके
- बटाई पर खेती करने वालों को कैसे सहूलियत देंगे? अभी बटाई पर खेती लेने वालों को लोन नहीं मिलता, लोन उसी को मिलता है जिसके नाम जमीन का पट्टा है।
- अगर खेती में प्राकृतिक आपदा से नुकसान हुआ तो मुआवजा खेत के मालिक को होगा, बटाईदार को नहीं।
- महिला किसान के हक और उनको सम्मान पर भी चर्चा हो, उन्हें किसानों के बराबर अधिकार मिलना चाहिए
- आंकड़े जुटाने के तरीकों पर भी खुलकर चर्चा होनी चाहिए
- एग्रीकल्चर को पब्लिक सर्विस घोषित किया जाए जहां न्यूनतम मजदूरी तय की जाए
- गांवों में कर्ज की सबसे बड़ी वजह है स्वास्थ्य। कर्ज की सबसे बड़ी वजह महंगा इलाज कृषि में काम करने वालों के इलाज का खर्च सरकार उठाए
- खेत मजदूर को भी किसान की तरह सहूलियत मिलें। हाल में इनकी आत्महत्याएं बढ़ गई हैं, लेकिन सरकारी परिभाषा में इन्हें किसान नहीं माना जाता
किसान समस्या से मीडिया बेखबर
देश में कृषि संकट इतना बड़ा है लेकिन मीडिया को इस संकट की विकरालता का अंदाजा ही नहीं है। किसानों की आत्महत्याओं के बारे में मीडिया की जानकारी बहुत कम है। ज्यादातर बड़े अखबारों और चैनलों में कृषि के लिए संवाददाता ही नहीं है। इसी तरह अखबारों ने श्रमिकों के लिए अलग से कोई संवाददाता नहीं रखा हुआ है।
किसान आत्महत्यायों को छिपाने की चाल
किसानों की आत्महत्याओं की वजह से हो रही किरकिरी से बचने के लिए राज्य और केंद्र शासित राज्यों की सरकारों ने इसके आंकड़े जुटाने का तरीका ही बदल दिया है। जैसे 2011 में 6 राज्यों ने रातोंरात घोषित कर दिया कि उनके यहां किसानों की आत्महत्याएं खत्म हो गई हैं। इसका मतलब ये माने की भारत किसानों के लिए स्वर्ग बन गया है। 2014 में किसानों की आत्महत्या गणना की मेथडोलॉजी ही पूरी बदल दी गई है।
मौजूदा कृषि संकट को पांच शब्दों में बताया जा सकता है। कॉरपोरेट हाईजैक ऑफ इंडियन एग्रीकल्चर। पॉलिसी बनाने वाले और राजनेता कृषि की अनदेखी इसलिए कर देते हैं क्योंकि बड़े अखबारों और चैनलों के लिए खेती और ग्रामीण भारत कोई खबर ही नहीं है।
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(पी साईनाथ का यह व्याखान दिल्ली में 16 जुलाई के प्रभाष प्रसंग कार्यक्रम का है। इसमें साईनाथ मुख्य वक्ता थे। प्रभाष प्रसंग हर साल मशहूर पत्रकार प्रभाष जोशी के जन्मदिन के मौके पर आयोजित किया जाता है।)