सरकार ! किसानों को सिर्फ वादा, इंपोर्ट लागत वसूल नहीं आधा । अनाज की रिकॉर्ड पैदावार, फिर भी इंपोर्ट की भरमार। एग्रीकल्चर में किसानों की परेशानी बताने के लिए यह लाइन ही काफी है। पंजाब से मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र से राजस्थान और कर्नाटक तक किसान उगा तो भरपूर रहे हैं लेकिन नीतियां कुछ ऐसी हैं कि उनके हाथ लागत तक नहीं आ रही है।
अरुण पांडेय
3 साल में इंपोर्ट 110% बढ़ा
असल में अनाज के लिए आत्मनिर्भर की सरकार की नीतियों में ठहराव है ही नहीं। जैसे हाल के सालों में बंपर फसल के बावजूद सरकार ने अनाज के इंपोर्ट को खुलकर बढ़ावा दिया। सबसे हैरानी वाली बात तो ये है कि गेहूं, मक्का, गैर बासमती चावल जैसे अन्न का बड़े पैमाने पर इंपोर्ट किया गया, जबकि देश के किसानों ने पहले ही इनकी बंपर पैदावार कर रखी थी।
आप हैरान रह जाएंगे 2014 से 2017 के बीच ऐसे अनाज का इंपोर्ट 110 परसेंट बढ़ा जिनके देश में ही भंडार पड़े थे। इस वक्त किसानों के सबसे बड़े संकट की वजह भी यही है बिना सोचे समझे कराया गया इंपोर्ट। इस इंपोर्ट की वजह से किसानों को उनकी फसलों के लिए समर्थन मूल्य तक नहीं मिल पा रहा है। उनकी लागत तक वसूल नहीं हो पा रही है।
1,40,000 करोड़ रुपए से ज्यादा अन्न इंपोर्ट
आखिर इतने भारी भरकम इंपोर्ट की नौबत क्यों आई? क्या सरकार को यह अंदाज नहीं था कि देश में भंडार के बावजूद अगर अनाज इंपोर्ट करने से किसानों पर कितनी बड़ी मार पड़ेगी? उनकी पैदावार को कौन पूछेगा? लेकिन ऐसा लगता है कि मौजूदा सरकार ने इन दिक्कतों पर विचार नहीं किया। नीतियां बनाने में दूरदर्शिता नहीं रखी गई और अब यही नीतियां किसानों के लिए मुसीबत बन गई हैं।
डाउन टू अर्थ मैगजीन के मुताबिक भारत का ताजा कृषि इंपोर्ट बिल 1.4 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा है। सस्ता और घरेलू फैक्टर को ध्यान में रखे बगैर किया गया इंपोर्ट पहले से परेशान किसानों के लिए और मुश्किलें बढ़ा रहा है।
ऐसे फैसले हो रहे हैं कि घरेलू बाजार किसानों के लिए ज्यादा फायदे का नहीं रह गया। जैसे ट्रेडरों के लिए देसी गेहूं खरीदने के बजाए ऑस्ट्रेलिया से गेहूं इंपोर्ट करना ज्यादा फायदे का सौदा हो गया। नतीजा ये हुआ कि 2014-15 में गेहूं, मक्का, गैर बासमती चावल का जो इंपोर्ट सिर्फ 134 करोड़ रुपए था, वो 2016-17 में 9009 करोड़ रुपए पहुंच गया। यानी एक साल के अंदर 6623 परसेंट का उछाल।
सरकार की नीतियां कैसे बिना सोचे समझे बनाई गई हैं इसकी एक और मिसाल देखिए। अनाज इंपोर्ट तो बेरोकटोक जारी रखा गया है, लेकिन अनाज के एक्सपोर्ट पर तरह तरह की पाबंदियां लगा दी गई हैं। नीतियों से तो ऐसा लगता है कि सरकार अपने ही किसानों के साथ परायों जैसा सुलूक कर रही है। 2014-15 में भारत का कृषि एक्सपोर्ट 1.31 लाख करोड़ रुपए था, लेकिन 2015-16 में यह घटकर सिर्फ एक लाख करोड़ रुपए के आसपास ही रह गया।
सरकार की नीतियों में ठहराव नहीं
मुश्किल बात यह है कि जब सरकार किसानों की दिक्कतों से घिरती है तो वो नीतियों की ओट में छिपने की कोशिश करती है। जैसे मई 2016 में कृषि मंत्रालय ने 9.4 करोड़ टन गेहूं पैदावार का अनुमान लगाया, जबकि खराब मॉनसून और सूखे के हालात की वजह से पैदावार कम होनी तय थी।
जब सरकार को कम पैदावार का अंदाज हुआ तो सिर्फ 2.3 करोड़ टन गेहूं की खरीद की गई और गेहूं के इंपोर्ट को बढ़ावा दिया गया। सरकार ने 2016 में पहले गेहूं पर इंपोर्ट ड्यूटी 25 परसेंट से घटाकर सिर्फ 10 परसेंट की फिर दो महीने के अंदर जीरो परसेंट कर दी। काफी दबाव के बाद इसे इस साल वापस 10 परसेंट किया गया। अब कोई सरकार से पूछे कि जब आपने बंपर फसल का अनुमान लगाया था तो इंपोर्ट की क्या जरूरत थी वो भी तमाम पाबंदियां हटाकर।
सरकार के ज्यादा स्मार्ट बाजार
अनाज पैदावार को लेकर बाजार का अनुमान सरकार से बेहतर रहा। 2015-16 में सरकार ने तो कहा कि अनाज की बंपर पैदावार हो रही है, पर बाजार को अंदाज लग गया कि गेहूं की कमी हो सकती है। इसलिए पहले ही आटे के दामों में अच्छी खासी परसेंट की तेजी आ गई। ऐसे में महंगाई बढ़ने के डर से घबराई सरकार ने बिना सोचे समझे गेहूं के इंपोर्ट का फैसला कर लिया।
फूड कॉरपोरेशन के आंकड़ों के मुताबिक 2016-17 में सरकार के गोदामों में गेहूं का भंडारण दशक के सबसे कम स्तर सालभर पहले के 2.4 करोड़ टन से घटकर यह आधा यानी सिर्फ 1.38 करोड़ टन ही रह गया।
2016-17 के सीजन में ऑस्ट्रेलिया, यूक्रेन और फ्रांस जैसे देशों से करीब 58 लाख टन गेहूं का इंपोर्ट किया गया।
आत्मनिर्भरता के बजाए इंपोर्ट निर्भरता
लगता है खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भरता का नारा कमजोर पड़ गया है। भारत खाने-पीने की जरूरत के मामले में तेजी से इंपोर्ट पर निर्भर होने की तरफ चल पड़ा है। डाउन टू अर्थ मैगजीन के मुताबिक 2010-11 में देश ने 56,196 करोड़ रुपए का कृषि इंपोर्ट किया था, जो 2015-16 में 150 परसेंट से ज्यादा बढ़कर 1,40,268 करोड़ रुपए हो गया, 2016-17 में इसमें और बढ़ोतरी की आशंका है। यूपीए सरकार में वाणिज्य मंत्री रहे कमलनाथ के मुताबिक किसानों को उनकी फसल का सही दाम ना मिल पाने की वजह यही अंधाधुंध इंपोर्ट है। कमलनाथ का दावा है कि उन्होंने अपने कार्यकाल में इस बात का पूरा ध्यान रखा कि जिन फसलों की देश में अच्छी पैदावार होती है उनके इंपोर्ट को बढ़ावा ना दिया जाए। इसलिए गेहूं के साथ साथ तिलहन में इंपोर्ट ड्यूटी इस तरह रखी गई कि इंपोर्ट के बाद वो भारतीय फसल के मुकाबले सस्ते ना पड़े।
हरित क्रांति के 50 साल, किसानों बुरा हाल
अनाज के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने वाली हरित क्रांति के 50 साल बाद में किसानों की बदहाली से बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है? हरितक्रंति की बदौलत ही भारत गेहूं और चावल एक्सपोर्ट मामले में दुनिया के अग्रणी देशों में शुमार हो गया था। 1964 देश में गेहूं की पैदावार सिर्फ 1 करोड़ टन थी जो इस समय 10 करोड़ टन के करीब है।
अनाज के मामले में देश अभी सुरक्षित है लेकिन इंपोर्ट को बढ़ावा देने वाली नीतियों की वजह से देश के किसानों को उनकी फसल का सही दाम नहीं मिल पा रहा है। सरकार महंगाई से इतनी घबराती है कि जैसे ही किसानों को फसल के अच्छे दाम मिलने की बात आती है वो इंपोर्ट का सहारा लेने लगती है। ऐसे में बंपर फसल उगाकर बैठे किसानों को सबसे ज्यादा चोट लगती है।
पूर्व वाणिज्य मंत्री कमलनाथ कहते हैं कि उनके कार्यकाल में गेहूं के इंपोर्ट पर जो 25 परसेंट ड्यूटी लगाई थी उसे मौजूदा सरकार ने ऐन उस वक्त घटा दिया जब भारत में गेहूं का बंपर उत्पादन हुआ था, इससे गेहूं के दाम नीचे आ गए। किसानों के कई संगठन सरकार से मांग कर रहे हैं कि गेहूं पर 40 परसेंट इंपोर्ट ड्यूटी लगाई जाए, वरना देसी किसानों के लिए गेहूं की फसल फायदेमंद नहीं रह जाएगी।
देसी गेहूं महंगा, विदेशी गेहूं सस्ता
जानकारों के मुताबिक इंपोर्ट किया गया गेहूं अभी घरेलू गेहूं से 15 परसेंट तक सस्ता पड़ता है। अभी गेहूं इंपोर्ट पर 10 परसेंट इंपोर्ट ड्यूटी है। किसान संगठनों के मुताबिक अगर यही हाल रहा तो गेहूं न्यूनतम समर्थन मूल्य 1625 रुपए के नीचे ही रहेगा। इंपोर्ट की मार गेहूं ही नहीं दालों पर भी पड़ी है। अरहर दाल एमएसपी के नीचे बिक रही है, इसका एमएसपी 5050 रुपए क्विंटल रखा गया है लेकिन इसे 4500 रुपए क्विटंल के आसपास दाम नहीं मिल रहे हैं। सोयाबीन भी एमएसपी से नीचे बिक रही है और सोयाबीन का कटोरा माने जाने वाले मध्यप्रदेश में किसानों का हाल बेहाल है।
जाने माने कृषि विज्ञानी एम एस स्वामीनाथन के मुताबिक इंपोर्ट की वजह से फसलों को सही दाम नहीं मिल पा रहे हैं।
इसका मतलब है कि किसानों को बाजार के भरोसे छोड़ देना गलत तरीका है। किसानों को अभी भी सरकार की खेती की तरफ झुकाव वाली नीतियों की जरूरत है। उन्हें अच्छे बीज, फर्टिलाइजर, नई नई टेक्नोलॉजी, उनके उत्पाद को बाजार में पहुंचाने के लिए मदद जरूरी है। किसानों को फसल के सही दाम मिलें इसके लिए जरूरी है कि उन्हें सस्ते इंपोर्ट से बचाया जाए।
खोखले नारे नहीं, सही नीतियां जरूरी
सरकार भले किसान किसान रटती रहे पर तथ्य कुछ और कहते हैं। एनडीए सरकार ने सत्ता में आते ही राज्य सरकारों को गेहूं खरीद के लिए बोनस नहीं देने का दबाव बनाया इसका परिणाम यह हुआ कि गेहूं की सरकारी काफी कम हो गई। इस कमी को इंपोर्ट से पूरा करने की कोशिश की गई।
यूपीए सरकार के वक्त 2008-09 में देश के कुल इंपोर्ट में कृषि इंपोर्ट की हिस्सेदारी सिर्फ 2.09 परसेंट यानी सिर्फ 29 हजार करोड़ रुपए थी। 2014-15 में यह दोगुना यानी 4.43 परसेंट (करीब 1.21 लाख करोड़ रुपए) हो गया और इसके अगले साल 5.63 परसेंट यानी 1.4 लाख करोड़ रुपए पार कर गया। सोचिए इसी रकम को किसानों की फसल खरीदने के लिए इस्तेमाल किया जाता तो उन्हें कितना फायदा होता। शायद किसानों की आत्महत्याओं को रोकने में बड़ी मदद मिलती।
इंपोर्ट ने बनाया किसानों पर दबाव
बेरोकटोक कृषि इंपोर्ट किसानों पर अनावश्यक दबाव बना रहा है। दुनिया के कृषि बाजार में भारत खाद्य तेल और दालों का बड़ा इंपोर्टर बना हुआ है। 1993-94 में देश में खपत का सिर्फ 3 परसेंट खाद्य तेल इंपोर्ट होता था जो अब 70 परसेंट पर जा पहुंचा है और इसमें सालाना 70 हजार करोड़ रुपए खर्च किए जा रहे हैं। घरेलू बाजार में सस्ता तेल छा गया है और इससे घरेलू फसल जैसे सोयाबीन और मस्टर्ड को वाजिब दाम नहीं मिल रहे हैं।
साल 2015-16 में देश में तिलहन की बंपर पैदावार हुई, लेकिन उसके ठीक पहले मौजूदा सरकार ने कच्चे और रिफाइंड पाम ऑयल पर इंपोर्ट ड्यूटी घटाकर 5 परसेंट कर दी। नतीजा सोयाबीन और मूंगफली के दाम न्यूनतम खरीद मूल्य से भी नीचे चले गए। इस तरह की नीतियों के बाद आप किसान से पैदावार बढ़ाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? इससे खाद्य तेल के इंपोर्ट में 10 सालों में तीन गुना बढ़ोतरी हुई, लेकिन तिलहन का उत्पादन 10 परसेंट कम हो गया।
दालों का भी यही हाल है, सरकार ने इसका प्रोडक्शन आउटसोर्स करने की रणनीति बनाई है। 2016 में जब अरहर की दाल 200 रुपए किलो तक पहुंच गई थी, तब भारत ने मोजाम्बीक और दूसरे अफ्रीकी देशों में दाल उगाने के समझौते किए। अगले 5 सालों में भारत मोजाम्बीक से 3 लाख टन दाल इंपोर्ट करेगा, इसी तरह का समझौता ब्राजील और म्यांमार से भी करने का इरादा है।
दालों में भी सरकार की नीतियां घरेलू किसानों के लिए नुकसानदेह रही हैं। भारत जरूरत का 25 परसेंट दाल इंपोर्ट करता है, इसमें सालाना करीब 20 हजार करोड़ रुपए खर्च होते हैं। इस साल देश में दाल की बंपर फसल होने के बावजूद सरकार ने 59 लाख टन दाल का इंपोर्ट किया है।
जानकार कहते हैं भारत की कृषि नीतियों में कोई विजन नहीं है। घरेलू पैदावार, मांग और महंगाई तीनों के बीच कोई तालमेल नहीं है, यही वजह है कि महंगाई बढ़ने के डर से सरकार अंधाधुंध इंपोर्ट करती है और इससे किसानों को सही दाम नहीं मिलते।
हालत यह है किसानों की आत्महत्याएं बढ़ रही हैं। लेकिन केंद्र सरकार इसे राज्यों की समस्या मानकर बहुत गंभीर कोशिश करती नहीं दिख रही है। 2022 तक किसानों को उनकी लागत का दोगुना दाम दिलाने के नारे लग रहे हैं लेकिन इसकी कोई ठोस कार्ययोजना नजर नहीं आ रही है।
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