किसान और किसानी को सरकार और सरकारी तंत्र कैसे खाते है, खा जाते है , इस क्लासिक व्यंग में बखूबी लिखा है शरद जोशी जी ने | यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है, जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा हुआ था |
शरद जोशी
मैं इल्ली के विषय में कुछ नहीं जानता। कभी परिचय का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ। इल्ली से बिल्ली और दिल्ली की तुक मिलाकर एक बच्चों की कविता लिख देने के सिवाय मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं पर लोग थे कि इल्ली का जिक्र ऐसे इत्मीनान से करते थे, जैसे पड़ोस में रहती हो।
मेरे एक मित्र हैं। ज्ञानी है यानी पुराणी पोथियां पढ़े हुए हैं। मित्रों में एकाध मित्र बुद्धिमान भी होना चाहिए- इस नियम को मानकर मैं उनसे मित्रता बनाये हुए हूं। एक बार विद्वता की झोंक में उन्होंने बताया था एक नाम ‘इला’। कह रहे थे कि अन्न की अधिष्ठात्री देवी हैं इला यानी पृथ्वी। मुझे बात याद रह गयी। जब झल्ली लगने की खबरें चलीं, तो मैं सोचने लगा कि इस ‘इला’ का ‘इल्ली’ से क्या सम्बन्ध? इला अन्न की अधिष्ठात्री देवी है और इल्ली अन्न की नष्ठार्थी देवी। धन्य है। ये इल्लियां इसी इला की पुत्रियां हैं। अपनी ममी मादाम इला की कमाई खाकर अखबारों में पब्लिसिटी लूट रही हैं। मैं अपनी इस इला-इल्ली के ज्ञान से प्रभावित हो गया और सोचने लगा कि कोई विचार-गोष्ठी हो, तो मैं अपने बुद्धि का प्रदर्शन करूं। पर ये कृषि विभाग वाले अपनी गोष्ठी में हमें क्यों बुलाने लगे। इधर मैं अपने ज्ञानी मित्र से इल्ली के विषय में अधिक जानने हेतु मिलने को उतावला होने लगा। मेरी पुत्री ने तभी इल्ली सम्बन्धी अपने ज्ञान का परिचय देते हुए अपना ‘प्राकृतिक विज्ञान’: भाग चार देखकर कहा की इल्ली से तितली बनती है। तितली जो फूलों पर मंडराती है, रस पीती उड़ जाती है। मेरे अंतर में एक कवि है, जो काफी हूट होने के बाद सुप्त हो गया है। तितली का नाम सुनते ही वह चौंक उठा और इल्ली के समर्थन में भाषण देने लगा कि यह तो बाग की शोभा है। मैंने कहा अबे गोभी के बिग फूल तैने कभी अखबार पढ़ा, ये झाल्लियां चने के खेत खा रही हैं और अगले वर्ष भजिये और बेसन के लड्डू महंगे होने की सम्भावना है, मूर्ख, चुप रह। कवि चुप क्यों रहने लगा? मैंने दुबारा बुलाने का आश्वासन दिया। तब माइक से हटा।
जब अखबारों ने शोर मचाया, तो नेताओं ने भी भाषण शुरू किए या शायद नेताओं ने भाषण दिए, तब अखबारों ने शोर मचाया। पता नहीं पहले क्या हुआ? खैर, सरकार जागी, मंत्री जागे, अफसर जागे, फाइल उदित हुए, बैठकें चहचहायीं, नींद में सोये चपरासी कैंटीन की ओर चाय लेने चल पड़े। वक्तव्यों की झाडुएं सड़कों पर फिरने लगीं, कार्यकरताओं ने पंख फड़फड़ाये और वे गांव की ओर उड़ चले। सुबह हुई। रेंगता हुई रिपोर्टों ने राजधानी को घेर लिया और हड़बड़ाकर आदेश निकले। जीपें गुर्रायीं। तार तानकर इल्ली का मामला दिल्ली तक गया और ठेठ हिन्दी के ठाठ में कार्यवाहियां हुईं कि खेतों पर हवाई जहाज सन्ना कर दवाइयां छिड़कने लगे। हेलीकाप्टर मंडराने लगे। किसान दंग रह गए। फसल बची या नहीं क्या मालूम, पर वोट मजबूत हुए। इस बता को विरोधियों ने भी स्वीकार किया कि अगर ऐसे ही हवाई जहाज खेतों पर हवा छिड़कते रहे, तो अपनी जड़ें साफ हो जाएंगी। शहर के आसपास यह होता रहा, पर बंदा अपना छह प्रष्ठ का अखबार दस पैसों में पढ़ता, यहीं बैठा रहा। स्मरण रहे आलसियों की यथार्थवाद पर पकड़ हमेशा मजबूत रहती है।
एक दिन एक कृषि अधिकारी ने कहा, “चलो इल्ली उन्मूलन की प्रगति देखने खेतों में चलें। तुम भी बैठो हमारी जीप में। मैंने सोचा, चलो इसी बहाने पता लग जाएगा कि चने के पौधे होते हैं या झाड़, और मैं जीप में सवार हो लिया। रास्ते भर मैं उसके विभाग के अफसरों की बुराइयां करता उसका मनोरंजन करता रहा। कोई डेढ़ घंटे बाद हम एक ऐसी जगह पहुच गए, जहां चारों तरफ खेत थे। वहां एक छोटा अफसर खड़ा इस बड़े अफसर का इन्तजार कर रहा था। हम उतर गए।
मैंने गौर से देखा चने के पौधे होते हैं, खेत होते हैं। यानी समधन की घोड़ी कोई गलत नहीं खड़ी थी। वह वहीं खड़ी थी, जहां हमारी जीप खड़ी थी।
हम पैदल चलने लगे। चारों ओर खेत थे, मैंने एक किसान से पूछा, “तुम जब खेतों में खोदते हो तो क्या निकलता है?”
वह समझा नहीं, फिर बोला, “मिट्टी निकलती है।”
“इसका मतलब है प्राचीन काल में भी वहां खेत ही थे।” मैंने कहा। मेरी जरा इतिहास में रुचि है। खुदाई करने से इतिहास का पता लगता है। अगर खुदाई करने से नगर निकले, तो समझना चाहिए कि वहां प्राचीन काल में नगर था और यदि सिर्फ मिटटी निकले तो समझना चाहिए कि खेत नहीं थे।
आगे -आगे बड़ा अफसर छोटे अफसर से बातें करता जा रहा था।
“इस खेत में तो इल्लियां नहीं हैं”? बड़े अफसर ने पूछा।
“जी, नहीं हैं।” छोटा अफसर बोला।
“कुछ तो नजर आ रही हैं।”
“जी हां, कुछ तो हैं।”
“कुछ तो हमेशा रहती हैं।”
“खास नुकसान नहीं करती।”
“फिर भी खतरा है।”
“खतरा तो है।”
“कभी भी बढ़ सकती हैं।”
“जी हां, बढ़ सकती हैं।”
“सुना सारा खेत साफ़ कर देती हैं।”
“बिलकुल साफ़ कर देती हैं।”
“इस खेत पर छिड़काव हो जाना चाहिए।”
“जी हां, हो जाना चाहिए।”
“तुम्हारा क्या खयाल है?”
“जैसा आप फरमायें।” छोटे अफसर ने नम्रता से कहा। फिर वे दोनों चुपचाप चलने लगे।
“जैसी पोजीशन हो, हमें बताना, मैं हुक्म कर दूंगा।”
“मैं जैसी पोजीशन होगी आपके सामने पेश कर दूंगा।”
“और सुनो।”
“जी, हुक्म।”
“मुझे चना चाहे, हरा बूट। घर ले जाना है। जीप में रखवा दो।”
“अभी रखवाता हूं।”
छोटा अफसर किसान की तरफ लपका।
“ओय क्या नाम है तेरा?”
किसान भागकर पास आया। छोटे अफसर ने उससे घुड़ककर कहा, “अबे, तेरे खेत में इल्ली है?”
“नहीं है हुजूर।”
“अबे थी ना, वो कहां गयी?”
“हुजूर पता नहीं कहां गयी।”
“अबे, बता कहां गयीं सब इल्ली?”
किसान हाथ जोड़ कांपने लगा। उसे लगा इस अपराध में उसका खेत जप्त हो जाएगा। छोटे अफसर ने क्रोध से सारे खेत की ओर देखा और फिर बोला, “अच्छा खैर, जरा हरा चना छांटकर साहब की जीप में रखवा दे। चल जरा जल्दी कर।”
किसान खेत से चने के पौधे उखाड़ने लगा। छोटा अफसर उसके सिर पर तना खड़ा था। इधर मैं और वह बड़ा अफसर चहलकदमी करते रहे। वह बोला, “मुझे खेतों में अच्छा लगता है। यहां सचमुच जीवन है, शांति है। सुख है।” वह जाने क्या-क्या बोलने लगा। उसने मुझे मैथिलीशरण गुप्त की ग्राम जीवनी पर लिखी कविता सुनायी, जो उसने कभी आठवीं कक्षा में रटी थी। कहने लगा मेरे मन में जब यह कविता उठती है, मैं जीप पर सवार हो खेतों में चला आता हूं। मैं बूट तोड़ते किसान की ओर देखता सोचने लगा- गुप्त जो को क्या पता था कि वे कविता लिखकर क्या नुक्सान करवा देंगे।
कुछ देर बाद हम लोग जीपों पर सवार हो आगे बढ़ गए। किसान ने हमें जाते देख राहत की सांस ली। जीप में काफी हरा चना ढेर पड़ा था। मैं खाने लगा। वे लोग भी खाने लगे। एकाएक मुझे लगा कि जीप पर तीन इल्लियां सवार हैं, जो खेतों की ओर चली जा रही है। तीन बड़ी-बड़ी इल्लियां। सिर्फ तीन ही नहीं, ऐसी हजारों इल्लियां हैं, लाखों इल्लियां, ये सिर्फ चना ही नहीं खा रहीं, सब कुछ खाती हैं और निश्शंक जीपों पर सवार चली जा रही हैं।
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